
नई दिल्ली, 23 जून (पीटीआई)। किशोर कुमार पर ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन से प्रतिबंध लगा दिया गया, ‘आंधी’ को रिलीज के बाद हटा लिया गया और राजनीतिक व्यंग्य फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ तो बिल्कुल ही रिलीज नहीं हो पाई… इमरजेंसी के उन 21 महीनों में फिल्म उद्योग के लिए एक अजीब दौर था जहां रचनात्मकता चरम पर थी लेकिन सेंसरशिप भी उतनी ही कठोर थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा की, जिसने पूरे देश को उथल-पुथल में डाल दिया। यह सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं था। मनोरंजन जगत ने भी सरकार के दमनकारी रुख को झेला और जो लोग उनकी लाइन पर नहीं चले, उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी।
यह एक अलग ही दौर था जब देव आनंद ने सत्ता के खिलाफ अपनी पार्टी नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया बनाई। राजनीति से दूर रहने वाले कलाकारों ने जनता पार्टी का समर्थन किया। प्राण, शत्रुघ्न सिन्हा, विजय आनंद और डैनी डेन्जोंगपा जैसे कलाकारों ने अपनी राय साफ तौर पर रखी।
फिल्म इतिहासकार एस एम एम औसाजा ने पीटीआई को बताया, ‘इमरजेंसी के दौरान फिल्म उद्योग ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था… कम से कम फिल्म जगत के प्रमुख लोगों में इतना साहस था कि वे सरकार के सामने खड़े होकर कह सकें कि आप जो कर रहे हैं वह सही नहीं है।’
देव आनंद ने एक इंटरव्यू में बताया कि कैसे संजय गांधी की तारीफ करने से इनकार करने के बाद उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। उनकी फिल्मों को दूरदर्शन पर दिखाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
गुलज़ार की फिल्म ‘आंधी’, जिसमें संजीव कुमार और सुचित्रा सेन एक महत्वाकांक्षी महिला राजनीतिज्ञ की भूमिका में थे, को रिलीज के कुछ महीने बाद ही बैन कर दिया गया। फिल्म में सुचित्रा सेन के बालों में सफेद लकीर इंदिरा गांधी की याद दिलाती थी।
फिल्म निर्माता अमृत नहटा की व्यंग्य फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ तो सिनेमाघरों तक पहुंच ही नहीं पाई। फिल्म का निगेटिव नष्ट कर दिया गया और इसकी प्रिंट्स को तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री वी सी शुक्ला ने जब्त कर लिया, जो इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी के करीबी थे।
नहटा के बेटे राकेश ने बताया कि फिल्म को लेकर उनके पिता को काफी यातनाएं झेलनी पड़ी, कई बार मौत की धमकियां भी मिलीं। संजय गांधी और वी सी शुक्ला ने फिल्म देखने के बाद ही इसे बैन कर दिया था।
किशोर कुमार, जिनकी आवाज के साथ साथ उनके स्वभाव के लिए भी जाने जाते थे, तब निशाने पर आ गए जब उन्होंने सरकार की बीस सूत्रीय कार्यक्रम की प्रशंसा में आयोजित ‘गीतों भरी शाम’ में शामिल होने से इनकार कर दिया। उन पर गैर सहयोगी होने का ठप्पा लगा और सरकार ने उनके गानों को ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन से बैन कर दिया।
उस दौर में फिल्में सिर्फ मनोरंजन का जरिया नहीं थीं। अमिताभ बच्चन का ‘एंग्री यंग मैन’ किरदार उसी दौर की उपज था जब लोग स्क्रीन पर वह देखना चाहते थे जो वे असल जिंदगी में कह नहीं पा रहे थे। औसाजा के मुताबिक, 1975 से 1978 के बीच अमिताभ बच्चन की सबसे बड़ी हिट फिल्में आईं।
फिल्म विद्वान अमृत गंगर ने इसे भारतीय सिनेमा के लिए उत्पादक वर्ष बताया जहां एक तरफ ‘आंधी’ थी तो दूसरी तरफ ‘जय संतोषी मां’ जैसी धार्मिक फिल्म। उन्होंने कहा कि सेंसरशिप के ये फैसले लोकतंत्र के लिए शर्मनाक थे।
यह सिर्फ हिंदी सिनेमा तक सीमित नहीं था। 1975 की कन्नड़ फिल्म ‘चंदा मरुथा’ के निर्माताओं को भी इमरजेंसी की वजह से दिक्कतें झेलनी पड़ीं। फिल्म की निर्देशक पट्टाभिरामा रेड्डी की पत्नी स्नेहलता रेड्डी को जेल में डाल दिया गया, जहां से छूटने के पांच दिन बाद ही उनकी मौत हो गई।
औसाजा ने कहा कि इमरजेंसी आज की सरकार के लिए एक सबक होना चाहिए कि कला पर प्रतिबंध लगाने का कोई फायदा नहीं।